Saturday, May 28, 2011

व्यंग्य वाणी .....: ये सी डी सी डी क्या है

aapki lekhani me vyang ka swaroop hai, par gambhir swabhav ke hai. aapne is tarah ka samjasy bithaya jo vyang ke nikharta hai. hamari shubkamnayen

Wednesday, December 15, 2010

देश के प्रति जुम्मेदारियों से न भागें!

भारत में एक नै विचारधारा जन्म ले रही है. वह है, आलोचना. बहुत से लोग अनेक मामलों पर आलोचना करते तो दिखेंगे, लेकिन उस आलोचना में अपनी जिम्मेदारी नहीं तलाशेंगे. हमारे समाज में बिन मांगे सलाह देने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है. सलाह देना अच्छा बात है, लेकिन सलाह का स्तर कैसा हो, यह एक मुश्किल और जोखिमभरा काम है वैचारिक और जिम्मेदारी के स्तर पर. अनेक मौकों पर, अनेक जगहों और जहाँ दो-चार लोग इकट्ठे हुए कि नहीं बहस और मुहबासे आरम्भ हो जाते हैं. समाज में ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन जहाँ सुझावों और विचारों का दौर चलता है, वहां बहुत से लोग सिर्फ और सिर्फ प्रश्न खरे कटे दिखाई देते हैं, हल और उनके इलाज़ की जिम्मेदारी की जब बात आती है, तो पतली गली से वैचारिक और बौधिक स्तर पर एकदम पल्ला छाड़ लेना एक आम आदत की तरह नज़र आता है.
बात एकदम साधारण है, लेकिन है बड़ी गंभीर. हमारे यहाँ समाज नाम की इकाई वैसे भी दम तोड़ रही है, ऐसे में परिवार और सामूहिक बुनियाद का आचरण अपनी सांसे गिनता नज़र आता है. सब चाहते हैं कि हमारी व्यवस्था और सामाजिक जीवन में मूल्यों का टोटा दिनोंदिन बढता ही जा रहा है. यह व्यवस्था तभी मज़बूत होती है, जब त्याग, अनुशासन और सहनशीलता का वातावरण निर्मित हो. मोटे तौर पर बेझिझक स्वीकारना पड़ेगा कि त्याग और सब्र किसे कहते है, यह हमारे जीवन से तेज़ी से मिटता जा रहा है. इन गुणों के अभाव में क्या हम सोच सकते है कि क्या हम स्वस्थ और सभ्य समाज की ओर अपने कदम बढ़ा रहे हैं या केवल आलोचना के हथियार वाली तलवार को जहाँ कहीं भी निकाला, उठाया, उसका इस्तेमाल किया और फिर अपने म्यान में किसी अगले मौके के लिए वापस रख लिया.
निश्चित रूप से इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि ऐसा करके हम क्या व्यवस्था को सुधार लेंगे या केवल आलोचना करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर देंगे? ऐसा लगते है, हमें जीवन के विभिन चरणों में, पलायन की सहज प्रवृति अपनाने की आदत-सी पड़ गयी है. दूसरों पर जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ देने से क्या हमारी जिम्मेदारी दूर हो जाएगी, बेबुनियादी बहस केवल गाल बजने तक सीमित हो जाएगी, ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं, जो देश के बौधिक और देशभक्ति का जज्बा रखनेवाले लोगों को जरूर कचोटे हैं.
इन सब बातों पर गौर करने से ऐसा लगता है कि बौधिक लोग तो केवल विचार देकर अपनी जिम्मेदारी पूरा करना समझतें हैं. गंभीरता से सोचने वाले लोग, मन मसोसकर रह जाते हैं--क्या यही सतही और तथाकथित देशभक्ति हमारी कमजोर जड़ों को और कमजोर नहीं बना रही. देश में मोटामोटी आधे लोग तो ऐसे हैं, जिनको दो जून कि रोटी मिल जाये, वही उनके लिए जीवन संघर्ष का फल है. शेष करीब चालीस प्रतिशत लोग अपनी या अपने परिवार की सही तरह से प्रगति हो जाये, इसी सोच को पूरा करने में जुटे रहते हैं. मोटे तौर पर आज की व्यवस्था के आधार पर देखें तो देशभक्ति की उम्मीद का जिम्मा राजनीतिज्ञ, सरकारी नौकरशाह व कर्मचारियों की लम्बी-चौड़ी फौज और समाज-सेवकों पर आता है.
हमारे लिए मुश्किल और बुनियादी बात यह है कि क्या देशभक्ति की जिम्मेदारी केवल उन्हीं जमातों पर है, जो कई मामलों में दिग्भ्रमित और गैर-जवाबदेह हैं? ऐसा लगता है कि हम आज़ाद हुए अपने पूर्वजों के बलिदानों से, क्या हमने उसके बाद आज़ादी के मायनों को समझा, क्या हमने देशभक्ति के जरूरी संसाधनों को पोषित किया, क्या हमने उन जमातों की कार्यप्रणाली की खंगालकर, उनकी कमियों को दूर किया, जो देश को चलाने में प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से जुडी हुई हैं या यूँ कहें जिनको संविधान ने देश ढ ब्यवस्था चलने के प्रति जिम्मेदार बनाया है. आज संविधान के तीन स्तम्भ--विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपनी बहुत-से जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है और कोई ऐसी बुनियादी पहल भी नहीं हो रही है, जिससे ऐसा लगे कि उसमे लगे घुन को साफ़ या जड़ से ख़त्म करने की कोशेशें हो रही है. एक अघोषित परन्तु हमारे समाज में पहचान बनानेवाला चौथा स्तम्भ कभी-कभी कुछ मायनों में थोडा सक्रिय दिखाई पड़ता है, वह है पत्रकारिता. लेकिन इस व्यवसाय में भी बहुत से विकार उतनी ही तेज़ी से आयें है जितने तीनों स्तंभों में. पता नहीं चलता कि कौन पत्रकार और अख़बार समूह किस प्रछन्न प्रयोजन और भूमिका बल पर समाचार दे रहा है, किसकी पोल क्यों और कैसे खोल रहा है.
निश्चित रूप से हमने अपने विकारों का इलाज नहीं किया तो गुलामी की जिन जंजीरों को तोड़कर हमारे देशभक्तों ने जो सपने संजोये थे, उनको तोड़ने कि जिम्मेदारी से हम बच नहीं पाएंगे. हमारी जिम्मेदारी है कि हम देश और समाज को रसातल में जाने से रोंक सकें, तो रोक लें.

Thursday, December 9, 2010

क्या कहिये ?

क्या कहिये ?

व्यक्ति अपने को भगवान माने
तो फिर बताएं भगवान को क्या कहिये
जब लोगों के साथ है चलना
तो क्यों न रेत को भी पत्थर कहिये!

मर चुका है आत्मबल लोगों का
जो भी इच्छा हो, उन्हें कहिये!
दर्द की जब कोई दवा न हो
तो क्यों न फिर दर्द को ही दवा कहिये!

पेयजल को लोग हैं तरसते
फिर दरियादिली को क्या कहिये
संसार में लज्जा ताज जीने वालों को
फिर इंसानियत या हैवानियत की मूर्ति कहिये.

अब तो नकाबों पर भी नकाब चढ़े हैं
फिर असलियत क्या है, वह आप कहिये!
क्या है भलाई इसी में अपनी
सरासर झूठ को भी सच कहिये!

सोचना मगर फिर भी हमें है
सच को फिर क्या कहिये?
कुछ करने या कहने को
आज एक बहुत बड़ा जिगर चाहिए!

मंजिलें दूर अवश्य हैं अनजानी जिन्दगी की
मरना-जीना उसी का अंग कहिये!
अगर मर-मिट जाएँ स्वार्थ में
ऐसे में फिर परमार्थ को क्या कहिये!

ललकार है, पुकार है -
परिवार किए चक्कर में दंदफंद मत करिए
अपने को न भूलें इतना
की परिवार भी आपको बाद में भूल जाये
ऐसे में फिर परायों को क्या कहिये!

अपने पराये का भेद छोड़कर
धरती मान के लालों को अपना कहिये!
गंगा-यमुना को दूषित किया उन्होंने
जिनकी बाजुओं में 'दम' नहीं, बल्कि 'दंभ' था
अन्यथा गंदे नालों में क्या दम था.

उस समय हम क्या खाक करेंगे
जब हमारी सांसों में दम न रहेगा
सोच कर कहिये कि हम तब क्या करेंगे
जब यमराज बे-खटके-बे-टिकेट ले जायेंगे.

माना सीमा पर गोली खाना देशभक्ति है
पूछता हूँ आप जहाँ हैं, क्या वहां देशभक्ति नहीं है
अब तक दूसरों के लिए था कि क्या कहिये
जनाब, अब खुद से पूछिये-बताईए कि
ऐसे में आपकी भूमिका को क्या कहिये!


नहीं कहूँगा राम-कृष्ण, मौला, गुरुनानक, ईसामसीह बनिए

बनिए तो एक बार हनुमान जैसे बनिए
आग अपन की पूँछ में थोड़ी जरूर लगेगी
तभी हमारे 'जीवन की लंका' जरूर जलेगी
जनाब, यह होगा जब आपके इरादों में दम होगा
तब तो रावण वध करने श्रीराम दौड़े आएंगे!

बोलकर भी चुप हो जाएँ
सुनकर भी अनजान हो जाएँ
जानकार भी कुछ न कह पायें
तो फिर उसको क्या कहिये!
कुछ ऐसा करो जगत में मरकर भी अमर कहाओ!

हिंदी या हमारी मातृभाषा दौड़ी वहां जहाँ जन-जन था
फिर क्यों अंग्रेजी कर रही उसकी सिंह सवारी
यहीं तो अपनों की आयाती अंग्रेजी का गम था
तभी तो किस्ती वहां डूबी जहाँ पानी कम था.
जय हिंद.

वंदन है, अभिनन्दन है, आप मेरे सिर का चन्दन हैं.

Sunday, October 17, 2010

क्या कहिये ?

व्यक्ति अपने को भगवान माने
तो फिर बताएं भगवान को क्या कहिये
जब लोगों के साथ है चलना
तो क्यों न रेत को भी पत्थर कहिये!

मर चुका है आत्मबल लोगों का
जो भी इच्छा हो, उन्हें कहिये!
दर्द की जब कोई दवा न हो
तो क्यों न फिर दर्द को ही दवा कहिये!

अब तो नकाबों पर भी नकाब चढ़े हैं
फिर असलियत क्या है, वह आप कहिये!
क्या है भलाई इसी में अपनी
सरासर झूठ को भी सच कहिये!

सोचना मगर फिर भी हमें है
सच को फिर क्या कहिये?
कुछ करने या कहने को
आज एक बहुत बार जिगर चाहिए!

मंजिलें दूर अवश्य हैं अनजानी जिन्दगी की
मरना-जीना उसी का अंग कहिये!
अगर मारा-मिट जाएँ स्वार्थ में भूल जाये
ऐसे में फिर परायों को क्या कहिये!

परिवार किए चक्कर में दंड-फंड मत करिए
अपने को न भूलें इतना
की परिवार भी आपको बाद में भूल जाये
ऐसे में फिर परायों को क्या कहिये!

अपने पराये का भेद छोड़कर
धरती मान के लालों को अपना कहिये!
गंगा-यमुना को दूषित किया उन्होंने
जिनकी बाजुओं में 'दम' नहीं, बल्कि 'दंभ' था
अन्यथा गंदे नालों में क्या दम था.

उस समय हम क्या खाक करेंगे
जब हमारी सांसों में दम न रहेगा
सोच कर कहिये कि हम तब क्या करेंगे
जब यमराज बिना खटके बे-टिकेट ले जायेंगे.

माना सीमा पर गोली खाना देशभक्ति है
पूछता हूँ आप जहाँ हैं, क्या वहां देशभक्ति नहीं है
अब तक दूसरों के लिए था कि क्या कहिये
जनाब, अब खुद से पूछिये-बताईए कि
ऐसे में आपकी भूमिका को क्या कहिये!

नहीं कहूँगा राम-क्रिशन, मौला, गुरुनानक, ईसामसीह बनिए
बनिए तो एक बार हनुमान जैसे बनिए
आग अपन कि पूँछ में थोड़ी जरूर जलेगी
तभी हमारे 'जीवन की लंका' जरूर जलेगी
जनाब, यह होगा जब आपके इरादों में दम होगा
तब तो रावण वध करने श्रीराम दोड़े आएंगे!

बोलकर भी चुप हो जाएँ
सुनकर भी अनजान हो जाएँ
जानकार भी कुछ न कह पायें
तो फिर उसको क्या कहिये!
कुछ ऐसा कर जाओ जगत में मरकर भी अमर कहाओ!

हिंदी या हमारी मातृभाषा दौड़ी वहां जहाँ जन-जन था
फिर क्यों अंग्रेजी कर रही उसकी सिंह सवारी
यहीं तो अपनों की अंग्रेजी का गम था
तभी तो किस्ती वहां डूबी जहाँ पानी कम था.
जय हिंद.

Thursday, July 15, 2010

आज के समाज में 'इज्जती मौत' को लेकर तरह की बातें की जा रही है। कभी कानून में संशोधन की बातें उठाई जाती हैं तो कभी ऐसे लोगो को सख्त सजा देने की बात की जाती है। कानून ने अठारह साल की लड़की को बलिग मानकर शादी करने की उम्र निर्धारित की है और लड़के की इक्कीस वर्ष। ये निर्धारण परिवार द्वारा शादी करने के मामले में बाल विवाह की कुरीति से बचने की लिए तो एक न्यूनतम प्रावधान के रूप में लागू हो सकता है, लेकिन यदि लड़का और लड़की अपनी पढाई-लिखाई या बेहतर भविष्य के निर्माण की जिम्मेदारी को छोड़कर भटकते इश्कबाजी और कामवासना की चाह में मनमर्जी से तथाकथित प्रेमभरी शादी के बंधन में बांध जाते हैं तो समाज उसको उचित नहीं मानता और मात-पिता उससे सहमत नहीं होते। ऐसे में मात-पिता या समाज की मान्यता के तर्क और दूरगामी उचित परिणामों को नकारा नहीं जा सकता।

हमारा देश मान्यताओं और परम्पराओं का देश है। शादी को समाज में एक ऐसे बंधन की मान्यता है जिससे गृहस्थ जीवन की नींव पड़ती है। इसमें हमारे संस्कार और परम्पराओं का मेल होता है। यह बात कानून की निगाह में एक हद तक सही हो सकती की अठारह साल में लड़की और इक्कीस साल में लड़के शादी कर सकते हैक्या कानून ने कभी सोचा है लेकिन समाज और परिवारसम्मत और संस्कारो का वाहक रहा है। ऐसे में जनता, कानून, शासन और प्रशासन को नियम-कायदे ऐसे इस्तेमाल में चाहिए जिनसे समाज में विद्रोह पैदा हो।

Yahoo! Mail (rpvatslm)

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Wednesday, December 2, 2009

आज देश में भ्रष्टाचार को लेकर काफी कुछ चर्चाएँ होती है। भ्रष्टाचार कई तरह का होता है, लेकिन धन का भ्रष्टाचार आज उसका अभिप्राय बन चुका है। उसके रोज पैदा हो रहे नए तौर-तरीकों, स्वरुप, विस्तार और उसको घेरने के लिए मामूली तौर पर बहस इसलिए चलती है कि उसके खिलाफ जंग छेड़ने का वातावरण निर्मित नही हुआ है। यह रोग ऐसा जन्मजात लगता है कि जब से मानव की उत्पत्ति हुई है तब से ही उसके विकास का अहसास लगता है। इन्सान को जब ईश्वर ने पैदा किया तो कुछ दिलो-दिमाग उसे अपने अनुसार चलने को भी दिया। हमारे पुरातन ग्रंथो में कर्म करो और फल की चिंता न करने पर जोर दिया गया है। पर इन्सान इस विचार को अपने हिसाब और स्वार्थ से इस्तेमाल करना चाहता है। इसी कारण वह अपने अनुसार फल जबरन और अपनी इच्छा के अनुरूप पाना चाहता है। इसी चाहत में वह मनमर्जी करने लगता है। कभी जन्मान्तर की प्रवृतियों के कारण तो कभी अपनी अपने आसपास की चमचमाती जिन्दगी की चाहत में वह पथ से विचलित हो जाता है, जिससे उसमे भ्रस्ताचार का भूत उसे घेर लेता है। इस भूत कि भुल्भालैया में वह अपना स्वाभिमान और आत्मा को गदला कारण डालता है।
किसी के पास भोजन नही है तो वह चोरी करता अच्छा लगता है। हालाँकि चोरी करना ग़लत है, लेकिन को भूख मिटने कि लिए उसे करता है तो उसकी मजबूरी मानी जा सकती है। अच्छा खाते-पीते लोग उसे अपनाते है तो उनकी शोकिया भूख समझ से परे है। धन की बढ़ती भूख भ्रस्त होने के लिए प्रेरित करती है। अपनी आवश्यकताएं पुरी करने और उनको धन का मुलम्मा चढ़ाने के लिए मानव उसमे इतना धस जाता है कि उसे सही ग़लत का भान ही नहीं होता। मानव की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए उसकी बल, धन, परिवार, वर्ग, धर्म आदि का इस्तेमाल देखा जाता है। हमारे पुरातन ग्रंथों में जीवन में धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष को मुख्य तत्व बताया गया है। मानव ने धर्म और मोक्ष को एक तरफ़ रखकर अर्थ और काम को अपने गले से लगा लिया है। अर्थ मोह उसे पथ विचलित करने का कारण बन रहा है। कही धन बल का नशा, लालची प्रवृति, कही मकान-दुकान, दिखावा-पाखंड, अपने बच्चों का भविष्य चमकाने के नाम पर वह अधिकाधिक मात्रा में उसे अर्जित करना चाह रहा है। उसके लिए वह अपने पेशे के साथ खिलवाड़, धोखा, ठगी, मिलावट, जमाखोरी, उत्पीडन, शोषण आदि करके अपनी चाह पूरी करने में जुट जाता है। इससे उसके कर्म तो ख़राब होते ही है, आत्मा की शक्ति भी कमजोर हो जाती है जिसके कारण नैतिक बल कमजोर पड़ता जाता है।
शासन-प्रशासन उसके सामने लचर नज़र आता है। भ्रष्टाचार होते हुए भी उसके अस्तित्व के खिलाफ लड़ने की जहमत उठा नही पता। इक्का-दुक्का मामले पकड़े जाने पर ऐसा लगता है कि जाल डाला जा रहा है उसके खतमे के लिया, लेकिन जब कोई दूसरा बड़ा मामला समजने आता है तो फ़िर एक नई ख़बर सुनकर लगता है कि मछलिया समुद्र में बहुत है। पर दुःख कि बात है कि मछलियाँ इतनी छोटी-बड़ी और भयंकर हैं कि हरदम जाल डालने की आवश्यकता है। हमारे पास जाल भी कम है और जाल डालने वालों की इच्छा शक्ति भी कमजोर है। कहीं-कहीं तो जाल डालने वाले ही मछलियों से मिल जाते हैं। भ्रष्टाचार की आड़ में रक्षक भक्षक बनने की दौड़ में चूहों की तरह भागे जा रहे हैं। हमें अपनी इच्छाओं के सामने कहीं-न-कहीं लक्ष्मण रेखा खींचनी चाहिए, अपने जमीर को संभालना चाहिए। हम जिन बच्चों और परिवार के लिए धन जुटाना चाहते हैं वे हमारे पाप-कृत्यों के लिए हमारे हिस्सेदार होने वाले नहीं हैं तो फ़िर हम उनकी फिकरी में उनके नाम पर इतने अंधे क्यों हो रहे है। अगर हम जानबूझकर अंधे होना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है अँधा होने से। हमें हमारे से सीख लेने वाली पीढ़ियों और लोगो के बारें में सोचना चाहिए जो हमसे सीखकर अपने रास्ता बनायेंगे।